• जातीयता-साम्प्रदायिकता पर आधी-अधूरी नहीं, निर्णायक बहस ज़रूरी

    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने पुन: विवादास्पद बयान दिया है; और अनुमानों पर खरा उतरते हुए उनके संगठन के प्रचार विभाग ने उसका यह कहकर स्पष्टीकरण पेश कर दिया कि भागवत का आशय फलां था

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    - डॉ. दीपक पाचपोर

    दोनों तरह के सामाजिक तनाव का नेतृत्व स्वयं संघ कर रहा है। भारत में सरेआम समतामूलक समाज की स्थापना करने के लक्ष्यों को लेकर बने संविधान को बदलने की बातें होती है। समानता, बन्धुत्व, धर्मनिरपेक्षता जैसे हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को तिरोहित कर ऐसा समाज बनाने का टास्क संघ ने स्वयं को दिया है जिसमें पहले साम्प्रदायिक श्रेष्ठता और तत्पश्चात जातीय श्रेष्ठता के आधार पर राजनैतिक-सामाजिक प्रणाली हो।

    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने पुन: विवादास्पद बयान दिया है; और अनुमानों पर खरा उतरते हुए उनके संगठन के प्रचार विभाग ने उसका यह कहकर स्पष्टीकरण पेश कर दिया कि 'भागवत का आशय फलां था, ढिकाना नहीं...।' रविवार को उन्होंने कहा था कि 'जातियां ईश्वर ने नहीं बल्कि पंडितों ने बनाई हैं।' बकौल भागवत, 'ईश्वर इंसानों में कोई भेदभाव नहीं करता।' जब सोमवार के अखबारों में यह वक्तव्य छपा तो दो बातें हर समझदार जान गया था- एक, कि इस पर बवाल होगा और दूसरे संगठन की ओर से इसकी सफाई आएगी। बवाल मचना तो लाजिमी था क्योंकि वर्ण व्यवस्था और हिन्दू बनाम गैर हिन्दू की दो अवधारणाओं पर ही संघ, उसके राजनैतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी तथा तमाम अनुषांगिक संगठनों का अस्तित्व टिका हुआ है। संघ के लगभग सौ वर्षों के उपक्रम और प्रयासों पर कोई ऐसे ही पानी नहीं फेर सकता क्योंकि संघ की लाख बुराइयां आप कर लें लेकिन यह सच है कि वहां आज भी संगठन व्यक्ति के मुकाबले ज्यादा अहमियत रखता है।

    संघप्रमुख बेशक काफी ताकतवर तो होता है परन्तु उसे छूट एक हद तक ही मिलती है। अस्तित्व के नाम पर लगता नहीं कि आरएसएस अपने प्रमुख को इतना बेलगाम कर दे कि वे ऐसा कुछ बोल जाएं जो संगठन की मुख्य अवधारणाओं के ही विपरीत हो। इसीलिये चाहे संघ प्रमुख कुछ बोलें या उसके मुखपत्रों में आशा या संगठन के विचारों के विपरीत कुछ कहा-बोला जाये तो संगठन की ओर से उसकी साफ-सफाई या लीपा-पोती तत्परता से हो जाती है।

    सो, अनुमानों के अनुसार भागवत के बयान पर सफाई तो आ गई लेकिन इससे यह भी स्पष्ट हो गया है कि संघ जिन विचारों को लेकर पिछले करीब 100 वर्षों से देश को गुमराह करता आ रहा है, उसे लेकर वह खुद दिग्भ्रमित है। समाज में जातीयता और साम्प्रदायिकता के आधार पर संघ, उसके विचारों की राजनैतिक प्रतिनिधि भाजपा (पहले भारतीय जनसंघ), अनेक सहयोगी संगठन समाज में दो तरह के विभाजन के लिये हमेशा जिम्मेदार माने जाते रहेंगे- पहला तो जातीय आधार पर और दूसरे, धर्म के आधार पर। जातीय विभाजन एक तरह से वर्णीय श्रेष्ठता पर ही आश्रित है; दूसरे, हिंदुओं से इतर धर्मावलंबी यानी मुस्लिम, इसाई आदि बहुसंख्यकों से कमतर दर्जे के हैं। इसी के आधार पर उसका कांग्रेस ही नहीं, भेदभावों से रहित समाज की कल्पना करने वाले सभी संगठनों व व्यक्तियों से विरोध रहा है। पहली बार उसकी वैचारिक मान्यताओं के आधार पर बनी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने किस प्रकार धार्मिक कट्टरता एवं उग्र राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया है, वह इन्हीं विचारों के चलते है। 9 साल के मोदी शासन ने देश को किस हाल में लाकर खड़ा कर दिया है, यह भी साफ हो गया है। असंख्य लोगों, खासकर युवाओं को बहकाकर जो सरकार बनी है, उसके शासन काल में सर्वाधिक पीड़ित युवा और बहुसंख्यक हिन्दू ही हैं।

    यह पहली मर्तबा नहीं है कि भागवत ने संघ की स्थापित मान्यताओं के खिलाफ कुछ बोला हो। इसके पहले वे वर्ण व्यवस्था को बीते दिनों की बात कहकर उसे भूल जाने की बात करते रहे। उसके पहले वे मुस्लिमों को भारतीय समाज का अविभाज्य हिस्सा बता चुके हैं। उससे भी पहले जाएं तो वे महात्मा गांधी को एक बड़ा नेता कह चुके हैं तथा कांग्रेस के योगदान की भी सराहना कर चुके थे। लगभग एक सदी का समय (स्थापना 1925 में ) लोगों को यह बतलाने में बिता देने के बाद कि, हिन्दू व मुस्लिम दो अलग कौमें हैं जो एक देश में नहीं रह सकतीं तथा वर्ण व्यवस्था श्रेष्ठ जीवन पद्धति है, भागवत की बातें उनके समर्थकों के लिये सदमा देने के लिये पर्याप्त रहीं।

    गांधी व कांग्रेस की प्रशंसा से भी उनके अनुयायी खुश नहीं कहे जा सकते क्योंकि संघ के अनेक कार्यकर्ता गांधी, जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस को गालियां देते हुए ही बड़े हुए हैं और मानते आए हैं कि वे न केवल देश विभाजन के दोषी रहे हैं बल्कि जिस आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक भारत का उन्होंने निर्माण किया वह उनकी (संघ की) पसंद व अवधारणाओं वाला नहीं है। वे समावेशी नहीं वरन बहुसंख्यकों के वर्चस्व वाले देश के पक्षधर हैं जहां गैरहिन्दू दोयम दर्जे के होकर रहें। उस ब्राह्मणवादी-मनुवादी समाज व देश में वे न तो कोई आरक्षण देखना चाहते हैं, न ही महत्वपूर्ण पदों पर कोई गैरहिन्दू।

    आज जब भागवत कहते हैं कि 'जाति व्यवस्था पंडितों ने बनाई, ईश्वर ने नहीं', तो इसकी प्रतिक्रिया होनी ही थी। आम विश्वास यही है कि वर्णों का निर्माण स्वयं भगवान की देन है। यह अलग बात है कि वैज्ञानिकता व तार्किकता की दृष्टि से यह भी असम्भव है, फिर भी अगर ऐसा है तो क्यों अब तक संघ यह बात कहता आया है जिसके कारण हिन्दू समाज में ही ऐसी विभाजन रेखाएं खिंच गई हैं कि अगड़े-पिछड़ों के बीच एक दूसरे के लिए घृणा का वातावरण है। देश में इस विखंडन का सबसे बड़ा दोषी तो खुद संघ परिवार है।

    हालांकि वह इसके लिए गौरवान्वित ही होता आया है। आज ऊंची जातियों का बोलबाला है और कथित तौर पर निचली कही जाने वाली जातियों के लोग प्रताड़ित हो रहे हैं। ऐसे ही, 1991 में बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद तो सारी सामाजिक व राजनैतिक लड़ाइयां हिन्दू व गैरहिन्दू के सवाल पर लड़ी जा रही हैं। इन दोनों तरह के सामाजिक तनाव का नेतृत्व स्वयं संघ कर रहा है। भारत में सरेआम समतामूलक समाज की स्थापना करने के लक्ष्यों को लेकर बने संविधान को बदलने की बातें होती है। समानता, बन्धुत्व, धर्मनिरपेक्षता जैसे हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को तिरोहित कर ऐसा समाज बनाने का टास्क संघ ने स्वयं को दिया है जिसमें पहले साम्प्रदायिक श्रेष्ठता और तत्पश्चात जातीय श्रेष्ठता के आधार पर राजनैतिक-सामाजिक प्रणाली हो।

    देश उसकी ओर बढ़ भी रहा है। धार्मिक कट्टरता व उग्र राष्ट्रवाद के आधार पर बनी सरकार के कामों का क्या हश्र हो सकता है, वह साकार हो चुका है। सारी आर्थिक ताकत चंद हाथों में सिमट गई है। लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को परे कर दिया गया है। मनरेगा जैसी उपयोगी योजना को कमजोर कर 80 करोड़ लोगों के हाथों में मासिक 5 किलो अनाज वाला झोला पकड़ा दिया गया है। ऐसे में जब भागवत वर्ण व्यवस्था को भूल जाने को कहते हैं, तो संघ को सफाई देना अपरिहार्य हो जाता है। हालांकि यह बड़ा लचर स्पष्टीकरण है क्योंकि इसमें कहा गया है कि 'पंडितों का आशय ज्ञानियों से था, न कि ब्राह्मणों से।' तो असली बात यह है कि प्राचीन काल में ज्ञान पर अंतत: ब्राह्मणों का ही एकाधिकार था। गैर ब्राह्मण, खासकर निचले तबकों को न तो ज्ञान प्राप्ति का अधिकार था और न ही उनकी मान्यताओं की स्वीकार्यता थी।

    यहां तक कि बाबासाहेब अंबेडकर कहते थे कि एक अकेले मनु के लिए इतने बड़े समाज में ऐसी व्यवस्था लागू करना असम्भव था, चाहे वह कितना भी महान क्यों न हो। वे इसे परम्पराओं व रुढ़ियों का प्रतिफल मानते थे। स्वयं भागवत बताएं कि वे कौन से ज्ञानी थे (न कि ब्राह्मण) जिन्होंने जाति व्यवस्था बनाई। इस विचार के पीछे चलने वाले भी सोचें कि एक अव्यवहारिक व अवैज्ञानिक मान्यता के लिए कैसे देश के सैकड़ों साल बर्बाद कर दिये गये, जिसने देश को कई टुकड़ों में बांटकर खुद को बर्बाद किया और चंद लोगों को आबाद। ये मुद्दे देश के लिए बहुत अहम हैं जिन पर आधी-अधूरी नहीं बल्कि समग्रता में बहस हो, वह भी पूरी और निर्णायक।
    (लेखक 'देशबन्धु' के राजनीतिक सम्पादक हैं)

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